शहीद दिवस पर विशेष:
गांधी की हत्या : साजिश, उन्माद और अपराध बोध
फिल्मों के आईने में महात्मा गांधी का अक्स
_तीर्थ गोरानी
तीस जनवरी, 1948! यह दिन भारतीय इतिहास के लिए एक कलुषित, विवादास्पद और साथ ही युगांतरकारी दिन भी है। इसी दिन नई दिल्ली स्थित बिड़ला मंदिर में प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को तीन गोलियां मारकर हत्या की गई थी! हत्यारा मौके पर ही पकड़ा गया । साजिश से जुड़े अन्य लोग भी गिरफ्तार किए गए और उन्हें सजा भी दी गई । लेकिन साढ़े सात दशक बाद भी यह अनुत्तरित है कि यह हत्या साजिश थी या परिस्थितिजन्य उन्माद का नतीजा? यह साजिश थी तो किसकी? और उन्माद था तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
तत्कालीन मीडिया कवरेज और इस विषय पर हुए शोध कार्यों और पुस्तकों से इसे जाना जा सकता है ! लेकिन जानकारी का एक और स्त्रोत फिल्में भी हैं। विजुअल्स के इस जमाने में फिल्में साहित्य से कहीं ज्यादा प्रभावी हैं। गांधी के जीवन व दर्शन पर कई फिल्में बनी हैं लेकिन यहां गांधी की हत्या पर केंद्रित चुनिंदा फिल्मों की ही चर्चा करूंगा।
वर्ष 1982 में प्रदर्शित रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी जहां एक बैरिस्टर से भारत की आज़ादी के महानायक बनने की कहानी है जिसमें वही कहा गया है जो सभी जानते हैं। यह गांधी के नजरिए से बनी फिल्म है लेकिन कुछ और भी फिल्में हैं जो गांधी को निष्पक्ष नजरिए से देखती हैं।
1. द गांधी मर्डर (2019)
करीम ट्रेडिया और पंकज सहगल निर्देशित यह फिल्म साजिश सिद्धांत की व्याख्या करती है। यह फिल्म अहिंसक गांधी की पृष्ठभूमि में एक हिंसक भारत को दर्शाती है और धर्म के आधार पर विभाजित भारत में जड़ें पकड़ती कट्टरपंथी मानसिकता की पड़ताल करती है।
तीन पुलिस अधिकारियों को खुफिया जानकारी मिलती है कि गांधी का जीवन खतरे में है। उसके बावजूद वे कार्रवाई में जानबूझकर देरी करते हैं। एक तरह से वे गांधी की हत्या होने देते हैं । हालांकि वे हत्यारों के साथ नहीं हैं लेकिन उन्हें लगता है कि इस हत्या से भारत टूटने से बच जाएगा।
फिल्म में अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या और महात्मा गांधी की हत्या में दिलचस्प समानता दिखाई गई है। गृहयुद्ध से जूझ रहा संयुक्त राज्य अमेरिका लिंकन की हत्या के बाद जैसे नींद से जाग गया। वहां कट्टरपंथी तत्व अचानक अप्रासंगिक हो गए। लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले संभल गए और देश टूटने से बच गया। डी आई जी रैना (स्टीफन लैंग) को लगता है कि विभाजन के बाद गृहयुद्ध की ओर बढ़ते भारत को भी ऐसी ही हृदय विदारक त्रासदी की जरूरत है।
फ़िल्म में गांधी की भूमिका जीसस संस ( इस्लामोफोबिया फेम) ने निभाई है जो इस फिल्म के निर्माता भी हैं। रजित कपूर जवाहरलाल नेहरू, अवतार गिल सरदार पटेल, गोविंद नामदेव मोरारजी देसाई बने हैं।
फ़िल्म में एक चीज अखरती है। फ़िल्म में हिंदू संगठनों को लगभग वैसा ही दिखाया गया है जैसा अन्य फ़िल्मों में आतंकियों को दिखाया जाता है। एक सीन में हिंदू नेता एक शरणार्थी को नेहरू के अधूरे भाषण की टेप सुनाकर बरगलाने की कोशिश करते दिखाया गया है।
अब जरा इस फिल्म की कॉन्सीपिरेसी थ्योरी पर गौर करें। आधुनिक विश्व में हुई अधिकांश राजनीतिक हत्याओं में अक्सर यह बात सामने आई है कि सरकारी तंत्र के पास इसकी जानकारी पहले से होती है या आशंका होती है इसके बावजूद हत्या हो जाती है।
दूसरा यह कि हत्या के बाद कुछ वर्ग निशाने पर आ जाते हैं। हाल के वर्षों में हर बड़े मौके पर आतंकी हमलों की आशंका जताई जाती थी फिर भी हमले हो ही जाते थे। क्या उनमें भी सरकारी तंत्र डी आई जी रैना की तरह सोचते रहे होंगे? लगता तो नहीं है लेकिन भारत में तीन राजनीतिक हत्याओं पर गौर करें। महात्मा गांधी के बाद वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जान खतरे में होने की आशंका खुफिया एजेंसियों ने जताई थी और आग्रह के बावजूद इंदिरा गांधी ने सुरक्षाकर्मी नहीं बदलने दिए।
उसके बाद सिखों पर हमले हुए। राजीव गांधी पर आतंकी हमले की सूचना भी पहले मिल चुकी थी। हैरत की बात है कि जब बम धमाके हुए तो वहां स्थानीय कांग्रेसी नेता नदारद थे। हालांकि एक और तथ्य इस फिल्म में दिखाया गया है कि गांधी की हत्या के बाद गोडसे के परिवार और जाति पर हमले होंगे यह अंदाज अंग्रेज अधिकारी को पहले से हो जाता है जिसे वे रोक नहीं पाते हैं।
महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर उसी तरह हमले हुए जैसे सिखों पर हुए थे। फिल्म मद्रास कैफे में भी एजेंट को राजीव गांधी की हत्या की सूचना पहले से मिल जाती है लेकिन वह हत्या को रोक नहीं पाया।
2. नाइन अवर्स टू रामा (1963)
मार्क रॉबिंसन निर्देशित इस फिल्म की अब कहीं चर्चा नहीं होती। फिल्म हिंदू उग्रवादी बताए गए नाथूराम गोडसे (हार्स्ट बुखोल्ज); को गांधी की हत्या की साजिश रचते और एक अधिकारी गोपाल राम ( जोस फेरर) को हत्या होने से पहले रोकने की दौड़ पर आधारित है। बीच बीच में फ्लैश बैक में दिखाया गया है कि गोडसे गांधी की हत्या क्यों करना चाहता था। गांधी का रोल जेएस कैशप ने निभाया है।
हैरत की बात है कि हॉलीवुड की इस फिल्म में भी सभी रोल हॉलीवुड कलाकारों ने निभाए हैं लेकिन भारतीय अभिनेता डेविड को त्रिपुंडधारी हिंदू उग्रवादी का रोल दिया गया था। यकीनन इस फिल्म को भारतीय जन समुदाय ने नहीं देखा होगा। वैसे भी वह दौर हिंदुओं को पाखंडी और पोंगापंथी दिखाने और अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त वर्ग को सभ्य मानने का था।
3. हे राम (2000)
कमल हासन निर्देशित यह फिल्म गांधी की हत्या के कारणों की ईमानदारी से व्याख्या करने के साथ ही अपराध बोध का भी अहसास कराती है। सांप्रदायिक दंगों में पत्नी की हत्या के बाद पंडित साकेत राम (कमल हासन) के दिल में नफरत बढ़ जाती है और वह महात्मा गांधी को देश के बिगड़े हालात के लिए जिम्मेदार मानता है और कट्टरपंथी संगठनों से जुड़ जाता है! वे उसे गांधी की हत्या की साजिश में शामिल कर लेते हैं।
वह हत्या के लिए दिल्ली पहुंच भी जाता है। हालात ऐसे हो जाते हैं कि वह हत्या नहीं कर पाता ।
4. मैंने गांधी को नहीं मारा (2005)
एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर के साथ बचपन में घटी एक घटना बुढ़ापे में उनकी मानसिक बीमारी का कारण बन जाती है।
वह खुद को महात्मा गांधी की गैर इरादतन हत्या का दोषी मानने लगता है। हालांकि फिल्म का सीधा संबंध महात्मा गांधी की हत्या से नहीं है, लेकिन किरदार के उदाहरण के जरिए यह गांधी के बारे में आम भारतीय की सोच को दर्शाती है। गांधी की पूजा करने वाला प्रोफेसर अपने ही देश में गांधी की उपेक्षा से अपराध बोध से ग्रस्त है।
फिल्म में हर कलाकार ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है. हॉलीवुड फिल्म द गांधी मर्डर में नेहरू का किरदार निभाने वाले रजित कपूर ने इसमें प्रोफेसर के बड़े बेटे का किरदार निभाया है। इस फिल्म में प्रोफेसर का गांधीवादी पिता अपने बच्चे के साथ वैसा ही विवेकहीन व्यवहार करता है जैसा दोनों गांधियों की हत्या के बाद हत्यारों की जाति के साथ किया गया था।
5. हे राम, हमने गांधी को मार दिया (2018)
नईम सिद्दीकी निर्देशित यह फिल्म गांधी की हत्या से सीधे जुड़ी नहीं है बल्कि तीस जनवरी 1948 की पूर्व संध्या पर देश में चल रहे माहौल पर आधारित है लेकिन कोई ठोस विचार नहीं रखती। एक ट्रेन की बोगी में कुछ यात्री सफर कर रहे हैं जिनमें सभी हिंदू हैं या नहीं यह वे पहले जांच लेते हैं , हालांकि उनमें एक मुस्लिम है जिसने अपनी पहचान छिपा ली है। सफर के दौरान उनमें बहस शुरू हो जाती है।
दंगों में फैक्ट्री जला दी जाने से बेरोजगार हुआ युवक कैलाश (जतिन गोस्वामी)दस साल बाद अपनी मां से मिलने अपनी पत्नी और बेटी के साथ गांव जा रहा है। वह महात्मा गांधी का विरोधी है।
एक और यात्री दिवाकर त्रिपाठी (सुव्रत दत्ता); गांधीवादी है। कैलाश वही तर्क देता है जो आज भी संघी देते हैं और दिवाकर वही जवाब देता है जो आज भी कांग्रेसी और वामपंथी देते हैं। वही गांधी का मुस्लिमों की तरफ झुकाव, पचपन करोड़ देने की जिद वगैरह और वही धर्म निरपेक्षता, कट्टर हिन्दू, डरा हुआ असुरक्षित मुसलमान. हिंदू राजा भी लड़ते थे वगैरह। सफर खत्म होते होते कट्टर हिंदू गांधीवादी बन जाता है और बापू की हत्या की सूचना पाकर रोने लगता है।
6. भवानी जंक्शन (1956)
वैसे तो यह फिल्म एंग्लो इंडियन लोगों पर आधारित है जो वर्ष 1947 में भारत छोड़ कर जा रहे अंग्रेजों और सत्ता संभाल रहे भारतीयों के बीच फंसे हैं। लेकिन महात्मा गांधी को लेकर आ रही ट्रेन पर कट्टरपंथी हिंदू को हमले की साजिश रचते दिखाया गया है।
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