बाबा दीप सिंह: जिसका धड़ से शीश कटने के बावजूद भी एक हाथ में शीश और दूसरे हाथ में तलवार लेकर मुगलों से लड़ता रहा


वाहेगुरु जी 


बाबा दीप सिंह: 


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जिसका धड़ से शीश कटने के बावजूद भी एक हाथ में शीश और दूसरे हाथ में तलवार लेकर मुगलों से लड़ता रहा


 


🌹 सिख इतिहास में अनेकों ऐसे योद्धा मिल जाएंगे, जिनकी बहादुरी, भक्ति और शक्ति के किस्से दुनियाभर में प्रचलित हैं। 


 


पंजाब की धरती ने अनगिनत भक्ति और शक्ति से भरे शूरवीरों को जन्म दिया है।


 इन अनगिनत शूरवीरों में एक ऐसे ही एक सिख योद्धा की बात करने जा रहे हैं। जिनकी बहादुरी की कहानी सुनकर किसी का भी शीश उनके चरणों में झुक जाएगा।उनके नाम से ही दुश्मन थर-थर कांपने लग जाते थे।


 


इतिहास के यह एक मात्र ऐसे शुरवीर योद्धा थे, जो युद्धभुमि में सिर कटने के बाद भी उसे हथेली पर रख कर लड़ते रहे। हम बात कर रहे हैं सिख इतिहास के महान योद्धा बाबा दीप सिंह जी की।  बाबा दीप सिंह जी ने युद्ध के दौरान जिस शौर्य और साहस का परिचय दिया, उसने आक्रांताओं को घुटनों पर ला दिया था।


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 इस महान सिख योद्धा बाबा दीपसिंह जिसे दशम पिता से मिला धर्म व शस्त्र ज्ञान


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बाबा दीप सिंह जी के माता-पिता भाई भगतु और माता जिओनी जी अमृतसर के गांव पहुविंड में रहते थे। भाई भगतु खेतीबाड़ी का कार्य करते थे और भगवान की कृपा से घर में किसी चीज की कमी नहीं थी।


 


मगर उनकी कोई भी औलाद नहीं थी, जिसके चलते वह हमेशा भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि उन्हें अपने जीवन में संतान सुख प्राप्त हो। एक दिन एक संत महात्मा से उनकी भेंट हुई। जिसने उन्हें बताया कि उनके यहां एक बेहद गुणवान बच्चा पैदा होगा और उसका नाम वह दीप रखें।


 


कुछ समय बाद 26 जनवरी 1682 को बाबा दीप सिंह जी का जन्म हुआ।


 


 एकलौता बेटा होने के चलते माता पिता ने दीप सिंह को बहुत लाड़ प्यार से पाला।


 


जब दीप सिंह जी 12 साल के हुए, तो उनके माता पिता उन्हें आनन्दपुर साहिब ले गए. जहां पहली बार उनकी भेंट सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी से हुई।


 


 जिसके बाद दीप सिंह अपने माता पिता के साथ कुछ दिन वहीं रहे और सेवा देने लगे।


 


कुछ दिनों बाद जब वह वापिस जाने लगे, तो गुरु गोबिंद सिंह जी ने दीप सिंह के माता पिता से उन्हें यहीं छोड़ जाने को कहा. इस बात को दीप सिंह व उनके माता पिता फौरन मान गए।


आनन्दपुर साहिब में दीप सिंह जी ने गुरु जी के सान्निध्य में सिख दर्शन और गुरु ग्रंथ साहिब का ज्ञान अर्जित किया।


उन्होंने गुरुमुखी के साथ-साथ कई अन्य भाषाएं सिखीं. यहां तक कि स्वयं गुरु गोबिंद सिंह जी ने उन्हें घुड़सवारी, शिकार और हथियारों की शिक्षा दी।


18 साल की उम्र में उन्होंने गुरु जी के हाथों से वैसाखी के पावन मौके पर अमृत छका और सिखी को सदैव सुरक्षित रखने की शपथ ली।



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गुरु ग्रंथ साहिब की बनाई प्रतिलिपियां


 


इसके बाद गुरु जी के आदेश से बाबा दीप सिंह जी वापस अपने गांव पहुविंड अपने माता पिता के पास आ गए।


एक दिन बाबा दीप सिंह जी के पास गुरु जी का एक सेवक आया, जिसने बताया कि हिंदु पहाड़ी के राजाओं के साथ युद्ध के लिए गुरु जी आनन्दपुर साहिब का किला छोड़ कूच कर गए हैं. इस युद्ध के चलते गुरु जी की मां माता गुजरी और उनके 4 पुत्र भी सब यहां वहां बिछड़ गए हैं।


 


इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी फौरन गुरु जी से मिलने के लिए निकल पड़े. कुछ समय की तालाश के पश्चात् आखिरकार बाबा दीप सिंह और गुरु जी की मुलाकात तलवंडी के दमदमा साहिब में हुई।


 


यहां पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी को पता चला कि गुरु जी के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए है और उनके दो छोटे पुत्र ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद में वजीर खान ने बेदर्दी से कत्ल कर दिया।


 


अपने जाने से पूर्व गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर बाबा दीप सिंह जी को सौंप दिया और उन्हें उसकी रखवाली की जिम्मेदारी दी।


 


बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी सभी वानियों व शिक्षाओं को पुन: अपने हाथों से लिखा और गुरु ग्रंथ साहिब की 5 प्रतिलिपियां बनाईं।


 


इन प्रतिलिपियों में एक को श्री अकाल तख्त साहिब, एक श्री तख्त पटना साहिब, श्री तख्त हजूर साहिब और श्री तख्त आनन्दपुर साहिब भिजवा दिया. इसके अलावा बाबा दीप सिंह जी ने एक प्रतिलिपी अरबी भाषा में बनाई, जिसे उन्होंने मध्य पूर्व में भेजा।


 


गुरु ग्रंथ साहिब की बाणी में को दिया नया रूप


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बाबा दीप सिंह जी सिख धर्म के सच्चे अनुयायी थे. बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित एक बाणी में भी बदलाव किया था।


 


दरअसल गुरु ग्रंथ साहिब की एक बाणी को लेकर बाबा दीप सिंह जी ने भाई मनी जी से कहा कि गुरु बाणी की एक लाइन कुछ यूं लिखी है कि:


 


“मित्र प्यारे नू,


हाल फकीरा दा कैहना”


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उनका विचार था कि इस बाणी की शुरुआत सही नहीं है, क्योंकि गुरु फकीर नहीं थे. इसलिए उन्होंने इसमें बदलाव करके इस लाइन को कुछ यूं बनाया...


 


“मित्र प्यारे नू,


हाल मुरीदां दा कैहना”


 


इस बदलाव को लेकर भाई मनी सिंह जी ने बाबा जी से कहा कि इस बदलाव को करने के लिए आपको पंथ के लिए कुछ करना भी पड़ेगा. जिसे स्वीकार करते हुए बाबा जी ने ऐलान किया, आज उनका यह शीश पंथ पर न्यौछावर है।


 


इसके चलते उन्हें जीते जी शहीद की उपाधि दी गई। 


 


सिखों को आपसी जंग से बचाया


 


इसके उपरांत बाबा दीप सिंह ने पंथ के लिए कई युद्धों में भाग लिया।


 


 1707 में बाबा दीप सिंह जी ने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर पंजाब की आजादी के युद्ध में भी भागीदारी दी. मगर 1716 में सिख समुदाय दो हिस्सों में बंट गया।


 


एक समुदाय था बंदही खालसा, जो कि बंदा सिंह बहादुर को गुरु गोबिंद सिंह जी का आखिरी सिख मानते थे और दूसरे थे टट खालसा, जो कि गुरु जी द्वारा रचित ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानते थे


 


यहां तक कि इन दोनों समुदायों में श्री हरिमंदिर साहिब पर हक जमाने को लेकर भी झगड़े होने लगे थे।


 


इस दौरान, बाबा दीप सिंह जी ने दोनों समुदायों के बीच के इस झगड़े को समाप्त करने के लिए काम किया. उन्होंने दो पर्चियों पर एक-एक समुदाय का नाम लिखकर सरोवर में फेंक दीं. दोनों पर्चियों में से टट खालसा की पर्ची तैरती रही और दूसरी डूब गई।


 


जिसके चलते बंदही खालसा समुदाय को हरमंदिर साहिब से जाना पड़ा।


 


अब्दाली की गिरफ्त से लोगों को बचाया


 


1755 में जब भारत में मुगलों का आतंक बढ़ा, तो लाचार लोगों की चीख पुकार बाबा दीप सिंह जी के कानों तक पहुंची।


 


दरअसल, इस समय अहमद शाह अब्दाली नाम के एक अफगानी शासक ने भारत में बड़ी तबाही मचाई हुई थी. वह 15 बार भारत आकर उसे लूट चुका था। उसने दिल्ली समेत आसपास के कई शहरों से न सिर्फ सोना, हीरे व अन्य चीजें लूटीं, बल्कि हजारों लोगों को भी बंदी बना कर अपने साथ ले गया।


 


इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी अपनी एक सैनिक टुकड़ी लेकर अब्दाली के छिपे ठिकाने पर पहुंचे।


 इन्होंने यहां मौजूद लोगों को और लूटे गए सामान को जब्द कर लिया और उसे वापस ले आए।


इस बात से गुस्साए अब्दाली ने फैसला कर लिया कि वह सिख समुदाय को पूरी तरह से मिटा देगा। 


 


पंथ को बचाने युद्ध में उतरे


 


इसके चलते 1757 में अब्दाली का सेनापति जहान खान फौज के साथ हरिमंदिर साहिब को तबाह करने के लिए अमृतसर पहुंच गया।


 


कई सिख सैनिक हरिमंदिर साहिब को बचाते हुए मारे गए. वहीं, इस समय बाबा दीप सिंह दमदमा साहिब में थे. जब उन्हें इस हमले के बारे में जानकारी मिली, तो उन्होंने फौरन सेना के साथ अमृतसर की ओर कूच किया।


 


इस युद्ध के समय उनकी उम्र 75 साल थी. अमृतसर सीमा पर पहुंचने पर बाब दीप सिंह जी ने सभी सिखों से कहा कि इस सीमा को केवल वही सिख पार करें, जो पंथ की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार हैं. पंथ के लिए आह्वान सुनते ही सभी पूरे जोश के साथ आगे बढ़े।


 


आखिरकार गांव गोहरवाल में दोनों सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने हुईं. युद्ध का बिगुल बजते ही फौजे युद्ध के मैदान में उतर आईं।


युद्ध में बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े. अचानक मुगल कमांडर जमाल खान बाबा जी के सामने उतरा। दोनों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ।


 


Baba Deep Singh Ji


 


जब शीश तली पर लेकर लड़े


 


आखिर में दोनों ने पूरी ताकत से अपनी-अपनी तलवार घुमाई, जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए।


बाबा जी का शीश अलग होता देख एक नौजवान सिख सैनिक ने चिल्ला कर बाबा जी को आवाज दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया।


इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ एक दम से खड़ा हो गया. उन्होंने अपना सिर उठाकर अपनी हथेली पर रखा और अपनी तलवार से दुश्मनों को मारते हुए श्री हरिमंदिर साहिब की ओर चलने लगे।


बाबा जी को देख जहां सिखों में जोश भर गया, वहीं, दुश्मन डर के मारे भागने लगे.


अंतत: बाबा दीप सिंह जी श्री हरिमंदिर साहिब पहुंच गए और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ा कर प्राण त्याग दिए । 


 


बाबा दीप सिंह जी की यह कुर्बानी संपूर्ण सिख पंथ के लिए मिसाल बनी. आज भी धर्म के प्रति उनकी अपार निष्ठा और त्याग पंथ का मार्ग प्रदर्शित करता है।


 


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